Shibu Soren Jharkhand Hero Life: शिबू सोरेन – शून्य से सत्ता तक..
Shibu Soren Jharkhand Hero:झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन का 81 वर्ष की उम्र में दिल्ली में निधन हो गया। झारखंड राज्य के गठन में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। वह तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे।

Shibu Soren Jharkhand Hero Life: झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन का 81 वर्ष की उम्र में दिल्ली में निधन हो गया। झारखंड राज्य के गठन में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। वह तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे।
शून्य से सत्ता तक
राज्यसभा सांसद, पूर्व केंद्रीय मंत्री, झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के सह-संस्थापक और तीन बार झारखण्ड के मुख्यमंत्री रहे शिबू सोरेन ने न सिर्फ़ आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी, बल्कि अलग झारखंड राज्य के निर्माण में भी निर्णायक और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसके लिए कई बलिदान भी दिए। जल, जंगल और जमीन की लड़ाई से लेकर अलग झारखंड राज्य बनने तक उन्होंने चार दशक से भी ज़्यादा समय तक संघर्ष किया। वह न केवल एक कट्टर आंदोलनकारी थे बल्कि साहसी व दयालू प्रकृति के भी धनी थे। यही वजह है कि झारखंड के सभी दलों के लोग आज भी उनका सम्मान करते हैं।
शिबू सोरेन, राजनीति की दुनिया में एक ऐसा दिग्गज और क़द्दावर नाम जिसने जंगलों और वंचितों की आवाज़ को संसद के गलियारों तक गुंजायमान किया.. संघर्ष और आंदोलन की भट्टी में ख़ुद को तपाकर एक ऐसी विरासत क़ायम की जिसने न सिर्फ़ एक क्षेत्र बल्कि पूरे देश की राजनीति को एक नया आयाम दिया। झारखंड में उलगुलान की वो आवाज बुलंद की थी जिसे बिरसा मुंडा ने हुंकार दी थी.. आदिवासियों के मसीहा, दलितों-वंचितों की आवाज़, अन्याय और ज़ुल्म का प्रतिकार और झारखंड संघर्ष परंपरा के वट वृक्ष दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने जब जल, जंगल, जमीन हमारा है का नारा दिया तो देश में आदिवासी हितों और विकास की एक नई गाथा लिख दी.. शिबू सोरेन का कद एक राजनीतिक नेता से ज़्यादा एक सामाजिक और नैतिक नेता के रूप में विकसित हुआ है। वे जमीनी स्तर पर जन-आंदोलन के अग्रदूत थे, जिन्होंने एक पूरी पीढ़ी को सामंती ढाँचों, दमनकारी ज़मींदारों और शोषणकारी व्यवस्थाओं के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। जंगलों से लेकर विधानसभाओं तक, उन्होंने बेज़ुबानों को आवाज़ दी।
शिबू सोरेन का जीवन
एक किसान से संसद के गलियारों तक पहुँचने का शिबू सोरेन का सफ़र कई उतार-चढ़ावों से भरा रहा.. संथाल आदिवासी समूह से आने वाले शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को अविभाजित बिहार के हजारीबाग के नेमरा गाँव में हुआ था। वर्तमान में ये इलाक़ा झारखंड के रामगढ़ ज़िले में है। शिबू सोरेन का बचपन अभावों और चुनौतियों से भरा था।
उनके पिता सोबरन सोरेन पेशे से शिक्षक और व्यवहार से गांधीवादी थे। ये वो दौर था जब अविभाजित बिहार के आदिवासी इलाकों में महाजनों का आतंक था, साहूकारी प्रथा अपने चरम पर थी और आदिवासी सूदखोरी के चक्र में फंसे हुए थे। सोबरन मांझी इसका विरोध करते थे इसलिये वह महाजनों की आँख की किरकिरी बन गए थे। इन्हीं सूदखोरों और शराब माफियाओं के खिलाफ आवाज उठाने के चलते 1957 में सोबरन सोरेन की हत्या कर दी गई। यही वो मोड़ था जिसने युवा शिबू के मन में गहरी छाप छोड़ी और साहूकारों व शोषकों के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी। पिता की हत्या की इस घटना के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ कर महाजनों के खिलाफ संघर्ष का फैसला किया और उस समय की सामाजिक संरचना को चुनौती दे डाली।

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धनकटनी आन्दोलन और दिशोम गुरु
शिबू सोरेन के राजनीतिक सफ़र में धनबाद का विशेष महत्त्व है। क्योंकि धनबाद से ही शुरू हुआ उनका संघर्ष सम्पूर्ण झारखंड आंदोलन में बदल गया और जिसने उन्हें आदिवासी समाज का राष्ट्रीय नायक बना दिया। धनबाद ने उनकी पहचान को ‘दिशोम गुरु’ के रूप में एक ऐसी सम्मानजनक उपाधि से नवाज़ा जो आज भी आदिवासी समुदाय में जीवित है।
युवा सोरेन ने महाजनी या साहूकारी प्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए 1970 के दशक में ‘धान काटो’ या ‘धनकटनी’ नामक एक आंदोलन का शंखनाद किया। यह महज़ एक आंदोलन नहीं था बल्कि युवा शिबू के संघर्षपूर्ण जीवन, ज़मीनी स्तर के नेतृत्व और साहसिक निर्णयों की गवाही था।
इस दौरान साहूकारों का ज़ुल्म और शोषण बढ़ता ही जा रहा था। टुंडी के आस-पास साहूकारों ने आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। महाजन, शराब पिलाकर आदिवासियों की जमीन हड़प लेते थे। तब शिबू सोरेन ने आदिवासियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया और कहा कि अगर बीज बोए हैं, तो फसल भी आपकी ही होगी। उन्होंने कहा कि धान लगाने वाला ही धान काटेगा और इस पर महाजनों का कोई अधिकार नहीं है। साल 1973 से 1975 के बीच चले इस आन्दोलन के तहत आदिवासियों की जमीन हड़पने वाले जमींदारों की फसलों को सामूहिक रूप से काटा गया। इस दौरान आदिवासी युवा महाजनों की खड़ी धान की फसल काट लेते और ये देखने के लिये कि कहीं साहूकार या उनके आदमी ज़बरदस्ती फ़सल न काट लें आदिवासी युवा तीर-कमान लेकर उनकी रक्षा करते। यही तीर कमान आगे चलकर शिबू सोरेन की राजनीतिक पहचान बना।
इस आंदोलन ने उन्हें आदिवासियों के मसीहा के रूप में स्थापित किया। इस आंदोलन ने झारखंड के किसानों, कामगारों और काश्तकारों को एकजुट कर आदिवासियों को शोषण से मुक्ति दिलाने में एक अहम भूमिका निभाई। इसी आंदोलन व संघर्ष से तैयार जमीन आगे चलकर शिबू सोरेन की राजनीतिक थाती बन गई। शिबू सोरेन अपने प्रशंसकों और आदिवासियों के बीच दिशोम गुरु के नाम से जाने जाने लगे। इसी आंदोलन के बाद शिबू सोरेन को दिशोम गुरु की उपाधि मिली। संथाली में दिशोम गुरु का अर्थ होता है देश का गुरु.. आदिवासी समाज में आज भी उन्हें अपने गुरु और देवता की तरह माना जाता है।
कहा जाता है कि धनबाद ज़िले के तत्कालीन उपायुक्त और आईएएस अधिकारी केबी सक्सेना ने शिबू सोरेन को पहली बार गुरुजी कहकर संबोधित किया था। उन्होंने ऐसा शिबू सोरेन द्वारा बच्चों, आदिवासियों, स्कूल और शराबबंदी के कल्याण के लिए किए जा रहे कार्यों को देखकर किया था। इसके बाद से ही शिबू सोरेन गुरुजी के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
शिबू सोरेन की समानांतर सरकार
टुंडी के जंगलों में जब शिबू सोरेन महाजनों के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे, तब पूरे क्षेत्र में उनकी समानांतर सरकार चलती थी। उनकी अपनी न्याय व्यवस्था थी. कोर्ट लगाते थे व फैसला सुनाते थे।
शिबू सोरेन ने संताल युवाओं को एक कर संताल नवयुवक नामक एक संघ बनाया जिसका मक़सद, आदिवासी समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए जागरूकता फैलाना था।
आंदोलन के हिंसक स्वरूप लेने के कारण सोरेन के ख़िलाफ़ कई बार एफ़आईआर भी दर्ज की गईं। लेकिन पुलिस उन्हें कभी पकड़ नहीं पाई। पुलिस से बचने के लिए उन्होंने पारसनाथ की पहाड़ियों के बीच पलमा गांव को अपना केंद्र बनाया। फिर टुंडी के पास पोखरिया में आश्रम बनाया। इस आश्रम से वह आदिवासियों के उत्थान के लिये कई कार्यक्रम चलाते थे।
वह आदिवासियों को शिक्षा के महत्त्व को भी समझाते थे और कहते थे कि शिक्षा के बिना उनका विकास नहीं हो सकता है। इसलिए पढ़ना लिखना बेहद जरूरी है। वह शराब पर पाबंदी और शिक्षा को हथियार बनाने के लिए समाज को जागृत कर रहे थे। 1975 का दौर आया.. इस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। तोपचांची के निकट जंगल में एक दारोगा की हत्या के बाद सरकार ने शिबू सोरेन को पकड़ने का आदेश दे दिया।

शिबू सोरेन का आत्मसमर्पण
धनबाद ज़िले के तत्कालीन उपायुक्त केबी सक्सेना ने शिबू सोरेन से जंगल में स्थित उनके अड्डे पर मुलाकात कर उन्हें कानून की गंभीरता समझाते हुए सरेंडर के लिए राज़ी कर लिया। शिबू सोरेन समर्पण के लिए राज़ी हो गए और 1976 में उन्होंने सरेंडर कर दिया। उन्हें धनबाद जेल में रखा गया। माना जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जब उन्हें शिबू सोरेन के कार्यों के बारे में उन्हें जानकारी मिली तो, श्रीमती गांधी के निर्देश पर ही बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र ने शिबू सोरेन की रिहाई का रास्ता साफ किया।
सक्रिय राजनीति में पदार्पण
शिबू सोरेन ने आदिवासियों के नेता के तौर पर 70 के दशक में सक्रिय राजनीति में कदम रखा। साल 1977 में उन्होंने अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत टुंडी विधानसभा से की, लेकिन इसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद शिबू सोरेन ने संताल परगना को अपना नया ठिकाना बनाया और पहली बार साल 1980 में यहां से चुनाव लड़ कर दिल्ली पहुँचने का रास्ता साफ़ किया। आगे चलकर वह दुमका सीट से साल 1989, 1991, 1996, 2002, 2004, 2009 और 2014 में सांसद चुने गए। इसके अलावा वह तीन बार राज्यसभा सदस्य भी रहे।
जब इंदिरा गांधी के ‘गुरुजी’ कहने पर भावुक हो गए
शिबू सोरेन के जीवन का एक किस्सा बेहद मशहूर है। बात 1980 के आस-पास की है। उस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। इस दौरान ईसीएल का राजमहल प्रोजेक्ट शुरू हुआ और प्रोजेक्ट के निकट आने वाले करीब 2500 आदिवासियों व गैर आदिवासियों की जमीन अधिग्रहीत कर कर ली गई और इसके बदले महज़ कुछ ही लोगों को नौकरी दी गई।
इसको लेकर सरकार और शिबू सोरेन के बीच ठन गई। शिबू सोरेन का कहना था कि 2500 लोगों की जमीन ली गई है तो नौकरी भी सभी को दी जाए। उन्होंने इसे लेकर एक उग्र आंदोलन किया और प्रोजेक्ट का काम रोक दिया। इसके बाद शिबू सोरेन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले। यह शिबू सोरेन और इंदिरा गाँधी की पहली मुलाक़ात थी। जब इंदिरा गांधी उनसे मिलीं तो उन्होंने शिबू सोरेन को गुरु जी कहकर उनका अभिवादन किया। इस पर शिबू सोरेन ने भावुक होते हुए उनसे कहा कि कम से कम आप तो मुझे गुरुजी मत कहिये। इसके बाद दोनों के बीच बात हुई और इंदिरा गांधी ने तुरंत सोरेन की बात मानते हुए राजमहल प्रोजेक्ट में 2500 लोगों को नौकरी देने की अनुशंसा कर दी।
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बांग्लादेश की ‘मुक्ति’ से प्रेरित ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ की स्थापना
साल 1972 में शिबू सोरेन ने वामपंथी ट्रेड यूनियन नेता ए.के. रॉय और विनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। इससे एक साल पहले ही बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बना था और जिस में बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का विशेष योगदान था। शिबू सोरेन ने इसी ‘मुक्ति’ शब्द से प्रभावित होकर अलग झारखंड के सपने को साकार करने के लिये झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। विनोद बिहारी महतो इसके पहले अध्यक्ष बने और शिबू सोरेन महासचिव बनाए गए। बाद में, 1987 में पार्टी के अध्यक्ष पद पर कार्यरत निर्मल महतो के निधन के बाद, झामुमो की कमान शिबू सोरेन के हाथों में आ गई।
शिबू सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने आदिवासी इलाकों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना का अभियान चलाया और राज्य को अलग पहचान दिलाने में एक अहम भूमिका निभाई।
1987 से लेकर 2025 तक वह लगभग 38 वर्षों तक इसके निर्विवाद अध्यक्ष रहे। अब उनके पुत्र हेमंत सोरेन झामुमो के केंद्रीय अध्यक्ष हैं।

झारखंड नायक
झारखंड राज्य की मांग काफी पुरानी थी। शिबू सोरेन भी एक अलग झारखंड राज्य का सपना देखते थे ताकि एक जन आंदोलन के ज़रिये इस क्षेत्र और इसके लोगों का विकास हो सके। राजनीति में सक्रिय होते ही शिबू सोरेन झारखंड राज्य के गठन के आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा बन गए। उन्होंने अलग झारखंड राज्य की मुहिम को नेतृत्व दिया। इस आंदोलन को सफल बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका मक़सद, केवल एक अलग राज्य बनाना नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी था कि आदिवासियों को उनके अधिकार मिलें और उनके सम्मान की रक्षा हो। सरकार और प्रशासन की प्रताड़ना के बावजूद क़रीब चार दशकों तक शिबू सोरेन ने इसके लिये संघर्ष किया।
उनके संघर्ष और आंदोलन के कारण अंततः 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य अस्तित्व में आया तो, उनका सपना साकार हुआ। पर संख्या बल में कमी के कारण वे झारखंड के पहले मुख्यमंत्री नहीं बन सके। लेकिन बाद में वह तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे और सियासत में आदिवासियों की आवाज को बुलंद किया। शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन पांच साल का कार्यकाल एक बार भी पूरा नहीं कर सके। वह 2005 में पहली बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन बहुमत साबित न कर पाने के कारण नौ दिन बाद ही उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद दोबारा बने दोनों कार्यकाल भी कुछ ही महीनों के रहे।
इसके अलावा, केंद्रीय राजनीति में भी उनका सफर उतार-चढ़ाव से भरा रहा। 2004 में जब मनमोहन सिंह सरकार में वह मंत्री बने, तो चिरूडीह कांड में गिरफ्तारी वारंट जारी होने के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद जब फिर से वह कोयला मंत्री बने, तो 2006 में अपने सचिव शशिनाथ झा की हत्या के मामले में दोषी ठहराए जाने के कारण इस बार भी मंत्री पद छोड़ना पड़ा।
विवादों की विरासत
चिरुडीह नरसंहार कांड (Chirudih Massacre Case)
शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन कई विवादों और गंभीर आरोपों से भी जुड़ा रहा। जिनमें सबसे लंबा और बड़ा चिरुडीह नरसंहार मामला (Chirudih massacre case) था। साल 1974-75 में दुमका ज़िले (अब जामताड़ा) के चिरुडीह गाँव में दो धड़ों के बीच हिंसक झड़प हो गई। एक भीड़ का नेतृत्व कथित तौर पर सोरेन कर रहे थे, जबकि दूसरी गैर-आदिवासी भीड़ थी। इसमें नौ मुसलमानों सहित ग्यारह लोग मारे गए। एफआईआर दर्ज हुई जिसमें सोरेन का नाम भी शामिल था।
यह मामला दशकों तक चला। 1979 में आरोप पत्र दायर किया गया; औपचारिक रूप से मुकदमे की कार्यवाही 1986 में शुरू हुई। सोरेन 1980 में सांसद चुने गए और कई बार अदालत में पेश नहीं हुए।
2004 में एक गिरफ़्तारी वारंट जारी किया गया, तब सोरेन केंद्रीय कोयला मंत्री थे और गिरफ़्तारी से बचने के लिए वह भूमिगत हो गए। लेकिन उन्होंने जुलाई 2004 में जामताड़ा की एक अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया और एक महीने से ज़्यादा समय जेल में बिताया। मार्च 2008 में एक फास्ट-ट्रैक अदालत ने सबूतों के अभाव में सोरेन और 13 अन्य को बरी कर दिया।
शशि नाथ झा हत्याकांड
शशि नाथ झा हत्याकांड ऐसा मामला था जिसने कहीं-न-कहीं सोरेन के राजनैतिक करियर को लगभग खत्म-सा कर दिया। दरअसल, झामुमो सांसद और सोरेन के पूर्व सहयोगी झा 1994 में लापता हो गए थे। बाद में उनका शव गाजियाबाद में मिला। सीबीआई ने सोरेन और अन्य पर आरोप लगाया कि झा का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी गई क्योंकि उन्हें 1993 के अविश्वास प्रस्ताव में झामुमो सांसदों से जुड़ी रिश्वतखोरी की जानकारी थी, जिसने नरसिम्हा राव सरकार को बचाया था।
नवंबर 2006 में दिल्ली की एक अदालत ने सोरेन को हत्या और आपराधिक षड्यंत्र का दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। उन्होंने कोयला मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और तिहाड़ जेल में बंद रहे। लेकिन अगस्त 2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनकी दोषसिद्धि को यह कहते हुए पलट दिया कि अभियोजन पक्ष सोरेन को अपराध से जोड़ने वाले प्रत्यक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहा।
इस आज़ादी ने दिसंबर 2009 में झारखंड के मुख्यमंत्री के रूप में उनके तीसरे कार्यकाल का मार्ग प्रशस्त किया।
राजनीति के किंगमेकर
राजनीतिक विवादों, आंदोलनों, कानूनी दाँव-पेंचों से घिरे शिबू सोरेन के मुख्यमंत्री कार्यकाल भले ही संक्षिप्त रहे हों लेकिन इसक बावजूद भी सोरेन चार दशकों से भी ज़्यादा समय तक झारखंड की राजनीति के केंद्र में रहे। उनकी पार्टी का आदिवासी आधार, विशेष रूप से संथाल परगना क्षेत्र में, उनके प्रति पूरी तरह से वफादार रहा। सरकारें बनाना हो या उन्हें गिराना, सोरेन का दबदबा और व्यक्तित्व ऐसा था कि उनकी बात सभी को स्वीकार्य होती थी। अप्रैल 2025 में सोरेन ने औपचारिक रूप से सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और झामुमो की कमान अपने पुत्र हेमंत सोरेन को सौंप दी।
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शिबू सोरेन की जटिल विरासत
एक तरफ जहाँ अपने समर्थकों और आदिवासी समाज के लिए शिबू सोरेन झारखंड के स्वतंत्रता सेनानी और अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले आदिवासी नायक थे। वहीं आलोचकों के लिए, वह भारतीय राजनीति के अंधकारमय स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते थे, एक ऐसा नेता जो कई आपराधिक मामलों में उलझा हुआ था, फिर भी सत्ता के करीब था। एक ऐसा नेता जिसने अपना कार्यकाल पूरा न करने के बावजूद भी झारखंड में हर सरकार को आकार देने में ख़ास भूमिका निभाई।
अस्थायी सरकारों के लिए जाने जाने वाले राज्य झारखंड में सोरेन एक ऐसे विवादास्पद व्यक्तित्व थे, जिनका सम्मान भी किया गया और निंदा भी, लेकिन उन्हें कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया गया। जब भी देश में आदिवासी समाज के हितों का ज़िक्र आएगा तो शिबू सोरेन का नाम सबसे अव्वल लिया जाएगा। वह झारखंड के सबसे कद्दावर और सबसे बड़े आदिवासी नेता के रूप में याद किये जाएंगे।
