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सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता 2:1 से बरकरार

सर्वोच्च न्यायालय ने 28 नवम्बर, 2018 को अपने ऐतिहासिक निर्णय में देश में मृत्युदंड की सज़ा को क़ायम रखते हुए मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता को 2:1 से बरकरार रखा। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता शामिल थे, ने अपनी अलग-अलग राय व्यक्त की। न्यायमूर्ति जोसेफ ने पीठ की ओर से फैसला लिखा।

तीनों जजों की पीठ ने छन्नू लाल वर्मा नामक एक व्यक्ति को सुनाई गई मौत की सज़ा को उम्रकैद में बदल दिया। इसे दो महिलाओं सहित तीन लोगों की हत्या के लिए मौत की सज़ा सुनाई गई थी। तीनों न्यायाधीशों में मृत्युदंड के क्रियान्वयन को लेकर मतभेद था किन्तु तीनों छन्नू लाल के मृत्युदंड  को बदलने पर एकमत थे।

मृत्युदंड पर तीनों जजों ने अपने विचार व्यक्त किए। न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने फैसले की घोषणा करते हुए मृत्युदंड लागू किए जाने के संबंध में अपने विचार पढ़े और विधि आयोग की 262वीं रिपोर्ट का ज़िक्र अक्र्ते हुए कहा कि हमारा मानना कि वह समय आ गया है जहां हम सज़ा के तौर पर मृत्युदंड की आवश्यकता, खासकर इसके उद्देश्य और अमल पर विचार करें। उन्होंने कहा कि अदालत के समक्ष हर मृत्युदंड का मामला मानव जीवन से संबंधित है जिसे कुछ संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हैं। यदि जीवन लिया जाना है, तो सख्त प्रक्रिया तथा उच्चतम संवैधानिक मानकों का पालन करना होगा। न्यायाधीश के रूप में हमारा विवेक, जो संवैधानिक सिद्धांतों से निर्देशित है, उससे कुछ भी कम की अनुमति नहीं दे सकता।

दूसरी ओर न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने मृत्युदंड लागू किए जाने के संबंध में न्यायमूर्ति जोसेफ से अलग विचार रखते हुए कहा 1980 में पंजाब राज्य बनाम बचन सिंह मामले में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मौत की सज़ा की संवैधानिक वैधता को पहले ही बरकरार रखा था। उन्होंने कहा कि संविधान पीठ ने मृत्युदंड की सज़ा को बरकरार रखा है, ऐसे में इस चरण में इस पर फिर से विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

भारत में मृत्युदंड का प्रावधान:

मृत्युदंड किसी भी देश में गंभीर अपराधों के लिए दी जाने वाली सज़ा मानी जाती है। भारत में वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् मौत की सज़ा प्राप्त लोगों की संख्या विवादित है। आधिकारिक सरकारी आँकड़ों के अनुसार स्वतंत्रता के बाद अब तक केवल 52 लोगों को मृत्युदंड की सज़ा दी गयी है। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के अनुसार वर्ष 1947 से अब तक भारत में कुल 755 लोगों को मौत की सज़ा दी जा चुकी है। इसी विश्वविद्यालय के एक शोध के अनुसार वर्ष 2000 से अब तक भारत में निचली अदालतों द्वारा कुल 1617 कैदियों को मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है।

भारत ने दिसम्बर 2007 में मृत्युदंड पर रोक के संयुक्त राष्ट्र महासभा संकल्प के ख़िलाफ़ मतदान किया था जबकि नवम्बर 2012 में, भारत ने मृत्युदंड की सज़ा को प्रतिबन्धित करने हेतु रखे गये संयुक्त राष्ट्र महासभा के मसौदे के ख़िलाफ़ मतदान करते हुये अपने फैसले को बरकरार रखा।

31 अगस्त, 2015 को विधि आयोग ने सरकार को एक प्रतिवेदन सौंपा जिसमें देशद्रोह अथवा आतंकी अपराधों के अतिरिक्त अन्य अपराधों हेतु मृत्युदंड को समाप्त करने की सिफारिश की गई थी जिस हेतु प्रतिवेदन में विभिन्न कारकों को उद्धृत किया गया, जिसमें 140 अन्य देशों में इसकी समाप्ति का भी उल्लेख है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1995 के बाद अब तक पांच घटनाओं में मौत की सज़ा दी गयी है। जबकि वर्ष 1991 से अब तक इसकी कुल संख्या 26 रही है। मिथु बनाम पंजाब राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 303 के तहत आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे किसी व्यक्ति को आवश्यक रूप से मृत्युदंड देने को ग़ैर-कानूनी माना गया।

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