Balraj Sahni : कहानी उनकी मौत और उनके दुखद बंगले की
बलराज सहनी…भारतीय सिने जगत का एक ऐसा दिग्गज कलाकार जिनका नाम ज़ेहन में आते ही एक ब-शऊर, सरल-सौम्य और नफ़ासत से भरा चेहरा आ जाता है। एक ऐसी शख्सियत जिसने फिल्मों में अपना कोई स्टाइल नहीं बनाया, पर हमेशा अपने किरदारों को जीवंत बनाने के लिए उस किरदार को असल में जिया। बलराज साहनी हिंदी सिनेमा के लीजेंड थे। उन्होंने फिल्मों में अपने किरदारों के ज़रिये न सिर्फ़ उस वक़्त के समाज की परेशानियों और आम आदमी के दर्द को ज़बान दी बल्कि फ़िल्मों से बाहर भी नैतिकता और सामाजिक सरोकार उनके सार्वजनिक जीवन का अहम हिस्सा रहे। बलराज साहनी उन कलाकारों में से थे, जो सामाजिक सरोकार वाली फ़िल्मों के साथ-साथ कमर्शियल फ़िल्मों से भी जुड़े थे।

Balraj Sahni : हिंदी सिनेमा में बीते ज़माने के दिवंगत और मशहूर अभिनेता बलराज साहनी के अभिनय का हर कोई क़ायल है। जिसने भी उनका अभिनय देखा, उनके अभिनय का मुरीद हो गया। अपनी दमदार और शानदार एक्टिंग से उन्होंने हर दिल में एक ख़ास जगह बनाई। बलराज सहनी का अभिनय इतना स्वाभाविक था कि इन्हें बॉलीवुड का नेचुरल एक्टर भी कहा जाता है। ये हिंदी के मशहूर लेखक भीष्म साहनी के बड़े भाई और अभिनेता परीक्षत साहनी के पिता थे।
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कहानी बलराज साहनी और उनके बंगले की

बलराज साहनी (Balraj Sahni) के न सिर्फ जीवन का सफ़र अपने-आप में दिलचस्प है बल्कि उनसे जुड़ी चीज़ों की कहानी भी रोचक है। तो कहानी हिंदी सिनेमा के उसी स्वाभाविक अभिनेता, लेखक, पटकथा लेखक और रेडिओ एनाउंसर की और उनसे जुड़े उनके उस आलीशान पर दुखद बंगले ‘इकराम’ की, जहाँ कभी सितारों की महफ़िलें सजती थीं पर एक वक़्त ऐसा भी आया जब वहाँ से गुज़रते हुए उनके बेटे परीक्षत साहनी अपनी आँखें बंद कर लेते थे।
ये बंगला जो उनके सफ़र में ख़ुद एक किरदार की तरह रहा, और जिसने बलराज साहनी की ज़िंदगी में बहुत कुछ बदल दिया।
बलराज साहनी का शुरूआती सफ़र

बलराज साहनी की पैदाइश मौजूदा पाकिस्तान के भेरा (रावलपिंडी) में 1 मई, 1913 को एक समृद्ध आर्य समाजी परिवार में हुई थी। इनका असल नाम युधिष्ठिर था, लेकिन परिवार के कई लोगों द्वारा इस नाम का सही उच्चारण नहीं कर पाने की वजह से उनका नाम बदलकर बलराज कर दिया गया। इनके पिता हरबंस लाल कपड़ों के एक बड़े व्यापारी थे।
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बचपन से ही क्रांतिकारी स्वभाव
बलराज साहनी बचपन से ही कुछ बाग़ी और क्रांतिकारी स्वभाव के थे।
उनके पिता उन्हें गुरुकुल में पढ़ाना चाहते थे पर बलराज को धर्म आधारित पढ़ाई रास नहीं आई और उन्होंने वहाँ जाने से मना कर दिया।
इसके बाद उन्हें पढ़ने के लिए डीएवी भेज दिया गया। आगे चलकर बलराज साहनी ने लाहौर में अंग्रेज़ी गवर्मेंट कॉलेज से इंग्लिश लिटरेचर में एमए किया।

बलराज साहनी को लिखने का शौक़ था तो साथ-साथ वह अंग्रेज़ी में कविताएँ भी लिखने लगे।
बलराज ने हिंदी में बैचलर्स की भी डिग्री हासिल की।
बचपन से ही उनकी दिलचस्पी अभिनय में थी तो वह नाटकों में भी काम करने लगे।
रवींद्रनाथ टैगोर औरमहात्मा गांधी से हुए प्रभावित

आज़ादी से पहले बलराज साहनी पाकिस्तान के रावलपिंडी में रहते थे इसलिए अब वह रावलपिंडी आ गए और पारिवारिक व्यवसाय संभालने लगे, पर उनमें मौजूद रचनात्मक कला और देश के लिए कुछ करने का जज़्बा हिलौरें ले रहा था।
1930-1934 के दौरान बलराज साहनी जब लाहौर में थे उस समय यह शहर शिक्षा ही नहीं बल्कि राजनीतिक सरगर्मियों का केन्द्र हुआ करता था। देश आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था। इस दौरान ज़्यादातर युवा गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित थे। युवा बलराज का भी इससे मुतास्सिर होना स्वाभाविक था। जल्द ही उन्हें गुरुदेव रबींद्रनाथ और महात्मा गांधी के साथ काम करने का मौक़ा भी मिला।
अभिनेत्री दमयंती से किया विवाह

6 दिसंबर, 1936 को बलराज साहनी ने अभिनेत्री दमयंती साहनी से विवाह कर लिया। दमयंती उनकी फिल्म ‘गुड़िया’ की हीरोइन थीं। विवाह के बाद पति-पत्नी घूमने के लिये ‘शांति-निकेतन’ गए। इधर बलराज साहनी का मन बिज़नेस में नहीं लग रहा था। इसलिये उन्होंने अपने व्यवसाय से किनारा कर लिया और पत्नी के साथ घर छोड़ कर 1937 में लाहौर आ गए। यहाँ से उन्होंने एक साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘मण्डे मार्निंग’ निकाला, पर कुछ समय बाद ही इसे बंद कर वह प्रख्याक लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, जो उस समय ‘विशाल भारत’ के संपादक थे, के पास कलकत्ता चले गए। इस बीच उनकी कई कहानियाँ ‘विशाल-भारत’ और ‘हंस’ आदि पत्रिकाओं में फ़ेमस हो चुकी थीं।

शांतिनिकेतन में किया अध्यापन
इसके बाद अज्ञेय की सिफारिश पर पति-पत्नी ‘शांति-निकेतन’ में टैगोर के विश्वभारती विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी और हिंदी अध्यापक की नौकरी मिल गई। बलराज साहनी के बेटे परीक्षत साहनी अपनी किताब The Non-Conformist : Memories of My Father Balraj Sahni में लिखते हैं कि 1930 के दशक के अंत में, मेरी माँ दमयंती और पिताजी एक शिक्षक के रूप में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में शामिल हो गए। मेरा जन्म वहीं हुआ था।

महात्मा गाँधी के सेवाग्राम आश्रम से जुड़े
शांतिनिकेतन में कुछ समय रहने के बाद 1938 में वे महात्मा गांधी से मिले। इसके बाद उन्हें उनके सेवाग्राम आश्रम (वर्धा) से प्रकाशित हो रही पत्रिका ‘नई-तालीम’ के सहायक संपादक के रूप में कार्य करने का आमंत्रण मिला। देशभक्ति और गांधी जी के व्याक्तित्व का आकर्षण ही था जिसके चलते बलराज साहनी और उनकी पत्नी सेवाग्राम जाने के लिए तुरंत तैयार हो गए और फिर वह सेवाग्राम आश्रम में पत्नी सहित काम करने लगे।

BBC लन्दन किया जॉइन, मार्क्सवाद की ओर रुझान
लगभग एक साल ही सेवाग्राम में काम करने के बाद वह 1940 में लंदन चले गए, जहाँ उन्होंने बीबीसी की ईस्टर्न सर्विस के भारतीय अनुभाग के लिए बतौर हिंदी ब्रॉडकास्टर काम किया। उन्हें लंदन ले जाने की अनुमति लंदन में इस यूनिट को स्थापित करने वाले लायनल फील्डन ने गांधी जी से ले ली थी।

यह द्वितीय विश्व युद्ध का समय था। यहीं रहते हुए पति-पत्नी का रुझान रूसी सिनेमा और मार्क्सवाद की तरफ़ होने लगा।
यहाँ क़रीब चार साल नौकरी करने के बाद 1944 में वह लंदन से वापस अपने देश लौट आए और फिल्मों में आभिनय की ओर मुड़ गए। यहाँ आकर वह इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़ गए और यहाँ नाटकों के साथ अपने अभिनय का सफ़र शुरू किया। अब पत्नी सहित वह मायानगरी बंबई चले आए। शुरुआती दौर में उन्होंने काफ़ी संघर्ष किया पर धीरे-धीरे दोनों को फिल्मों में काम मिलने लगा। साल 1946 में फ़िल्म ‘इंसाफ़’ के साथ उनके फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत हो गई। इसके बाद इसी साल निर्देशक के.ए. अब्बास की फ़िल्म ‘धरती के लाल’ में भी उन्हें काम मिला।
पत्नी का देहांत और दूसरा विवाह
बलराज साहनी की पत्नी दमयंती भी एक एक्ट्रेस थीं और साल 1947 में आई फिल्म गुड़िया में उन्होंने लीड रोल प्ले किया था। पर इसी साल बलराज साहनी के जीवन में एक दुखद मोड़ आया। महज़ 26 साल की उम्र में ही 1947 में उनकी पत्नी दमयंती का निधन हो गया। पत्नी के अचानक इस तरह चले जाने के ग़म ने उन्हें अंदर तक तोड़कर रख दिया। पत्नी की मौत के बाद बलराज साहनी अपने दोनों बच्चों परीक्षित और शबनम की परवरिश अकेले करने लगे। इसके कुछ समय बाद साल 1951 में उन्होंने संतोष चंदोक से दूसरी शादी की।
जेल गए पर नहीं रुकी शूटिंग
बलराज साहनी ने फिल्मों में काम करना जारी रखा पर अभी तक फ़िल्मी जगत में उन्हें वह मुक़ाम न मिला था जिसकी उन्हें तलाश थी या जिसके लिये वह बने थे। साल 1951 में एक फ़िल्म आई ‘हलचल’, जिसमें दिलीप कुमार के कहने पर के. आसिफ ने उन्हें जेलर का रोल दिया। तय हुआ कि बलराज साहनी कुछ दिन जेलर के साथ रहकर अपने किरदार की तैयारी करेंगे।

पर इसी बीच एक दिन किसी जगह पर एक हिंसा की घटना हो गई और उस समय बलराज भी वहाँ पर मौजूद थे तो कई लोगों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और वह वाकई में जेल पहुँच गए। ऐसे में के. आसिफ जब उनसे मिलने आर्थर रोड जेल पहुँचे तो उनके कहने पर जेलर ने बलराज साहनी को जेल में रहकर ही शूटिंग करने की अनुमति दे दी जिसके लिये उन्हें कुछ देर के लिए क़ैद से छुट्टी मिलती थी। इसके बाद बलराज साहनी रोज़ाना सुबह फिल्म की शूटिंग पर जाते और शाम को वापस जेल लौट आते। करीब तीन महीनों तक ये सिलसिला चला और इस तरह फ़िल्म की शूटिंग की गई।

फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ से मिला स्टारडम
साल 1953 में उनकी फिल्म आई- दो बीघा ज़मीन, जोकि बॉक्स ऑफिस पर बेहद कामयाब रही। यह फ़िल्म उनके करियर में मील का पत्थर साबित हुई। इस फ़िल्म ने बलराज साहनी को न सिर्फ़ रातों-रात स्टार बना दिया बल्कि लोगों के दिलों में एक मज़बूत पहचान भी दी। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने करियर में कई शानदार और यादगार फिल्में दीं।
एक तरफ़ जहाँ उन्होंने धरती के लाल, दो बीघा ज़मीन, काबुलीवाला और गर्म हवा जैसी सामाजिक सरोकार वाली फ़िल्में दीं तो वहीं वक़्त, संघर्ष, हमराज़, अनुराधा, एक फूल दो माली और नीलकमल जैसी कामयाब कमर्शियल फ़िल्में देकर सिने जगत और लोगों के दिलों पर अपने स्वाभाविक अभिनय की एक अलग छाप छोड़ी।

असल ज़िंदगी में उतार लेते थे किरदार
बलराज साहनी केवल अभिनय नहीं करते थे बल्कि अपने किरदार को इस तरह स्वयं में जीते थे कि असल ज़िन्दगी में भी वही बन जाते थे। भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे यादगार फिल्मों में से एक ‘दो बीघा ज़मीन’ से उनके जुड़ने और उसकी तैयारी का किस्सा भी दिलचस्प है। इस फिल्म में बलराज साहनी ने एक रिक्शा चालक का किरदार निभाया था।
बिमल रॉय ने इस फिल्म के लिए उनसे पहले अशोक कुमार और त्रिलोक कपूर जैसे नामों पर भी विचार किया था। इस बीच उन्होंने बलराज साहनी की फिल्म ‘हम लोग’ देखी, जिससे वह बेहद प्रभावित हुए और उन्हें अपनी फ़िल्म में लीड रोल देने का फ़ैसला किया।
जब बिमल रॉय ने बलराज साहनी को मिलने बुलाया तो वह सूट-बूट में उनके ऑफिस पहुँचे। उन्हें देखकर बिमल दा चकरा गए और उनसे बोले कि मिस्टर साहनी आप इस किरदार में बिल्कुल फिट नहीं बैठते हैं क्योंकि मेरी फिल्म का किरदार तो एक गरीब रिक्शाचालक का है।

इस पर बलराज साहनी ने बिमल रॉय को एक बार उनकी फिल्म ‘धरती के लाल’ देखने की रिक्वेस्ट की। बिमल रॉय ने फिल्म देखी और इसके बाद उन्हें यह रोल दे दिया। बलराज साहनी ने अपने किरदार की तैयारी के लिए न सिर्फ़ अपना आधे से ज़्यादा वज़न कम किया बल्कि हाथरिक्शा चलाना भी सीखा। इसके लिये वह बंबई की सड़कों पर रोज़ाना घंटों हाथ से रिक्शा खींचते थे।
अपनी मशहूर फिल्म काबुलीवाला के दौरान भी वह लम्बे वक़्त तक पठानों की बस्ती में उनके साथ रहे ताकि वह अपने किरदार में जान डाल सकें।

कम्युनिस्ट विचारधारा और सामाजिक सरोकार
बलराज साहनी दिल से एक प्रतिबद्ध कॉमरेड और कम्युनिस्ट विचारों वाले व्यक्ति थे। वह मार्क्सवाद से प्रभावित थे। बलराज साहनी समाज के वर्गों में बराबरी की बात करते थे। वह कम्युनिस्ट सिद्धांत और समाजवाद में यक़ीन रखते थे।
उनके बेटे परीक्षित साहनी की किताब में बलराज साहनी को याद करते हुए अमिताभ बच्चन कहते हैं कि जब मैंने फिल्म इंडस्ट्री में आने का इरादा किया और अपने पिता साहित्यकार हरिवंशराय बच्चन को इस बाबत बताया, तो उन्होंने मुझसे कहा कि बलराज साहनी की तरह बनना, वह फिल्म इंडस्ट्री में होते हुए भी इससे बाहर हैं।
सरल और ज़मीन से जुड़ी शख्सियत
बलराज साहनी ज़मीन से जुड़ी शख्सियत थे और बेहद साधारण व्यक्तित्व के मालिक थे। वह न केवल अपनी जड़ों से जुड़े रहने को पसंद करते थे बल्कि ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ के सिद्धांत को स्वयं में फ़ॉलो भी करते थे। बलराज साहनी हिंदी सिनेमा के बड़े सितारों में शामिल हो चुके थे। लेकिन अभी तक वह अपने परिवार के साथ दो-तीन कमरों वाले एक छोटे-से घर में ही रहते थे जिसका नाम ‘स्टेला विला’ था।

अपनी किताब में परीक्षत साहनी लिखते हैं कि मेरे पिताजी से न जाने कितने ही लोगों ने कहा कि अब आप बड़े स्टार हो चुके हो अब बड़ा घर ले लो। बार-बार दोस्तों के कहने पर या दिल में एक आलीशान घर की हसरत की वजह से एक लंबे वक़्त के बाद आख़िरकार वह इस बात के लिए मान गए।
बनवाया आलिशान बंगला ‘इकराम’, रास न आया
बलराज साहनी ने जुहू में उस दौर के मशहूर होटल ‘सन एंड सैंड’ के सामने एक आलीशान सफ़ेद बंगले का निर्माण कराना शुरू कर दिया। परीक्षित उस समय रूस में पढ़ाई कर रहे थे। अपनी किताब में वह बताते हैं कि जब मैं छुट्टियों में घर आया तो पिताजी ने बड़े प्यार से उन्हें वह नया आलीशान घर दिखाया। घर का काम पूरा हो चुका था। बलराज साहनी ने इस घर को नाम दिया ‘इकराम’ मतलब इज़्ज़त या प्रतिष्ठा।

घर बेहद खूबसूरत और बड़ा था पर उसके सामने एक स्लम एरिया था। मुझे घर पसंद नहीं आया। मैंने कहा कि पिताजी ये महलनुमा घर हमारे जीवन के फ़लसफ़े के साथ मैच नहीं करता है। घर को छोटा करिये और इसमें एक बाग़ीचा बनाइये। बलराज साहनी अपने बेटे की बात सुनकर सोच में पड़ गए और कहा कि अब तो घर बन चुका है बेटा।
बात कहीं-न-कहीं सही भी थी, ये आलीशान बंगला बलराज साहनी के सादा जीवन उच्च विचार के फ़लसफ़े से पूरी तरह से अलग था।
घर से जुड़ी बुरी यादें
परीक्षत साहनी बताते हैं कि जब वह रूस में थे तब उन्हें इस घर को लेकर एक बुरा सपना आया था। उसके बाद उन्हें ऐसा लगा कि जैसे इस घर में कुछ बुरा होने वाला है। और हुआ भी कुछ ऐसा ही।
शुरू-शुरू में आलीशान ‘इकराम’ कई रंगीन और यादगार महफ़िलों का साक्षी बना। फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी-बड़ी हस्तियों के साथ ही कई बुद्धिजीवी, शायर और लेखकों जैसे कैफ़ी आज़मी, कवि हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, पीसी जोशी जैसे बड़े-बड़े लोग इन महफिलों का हिस्सा होते थे।
लेकिन जल्द ही यहाँ कई ऐसी घटनाएँ हुईं जिसने बलराज साहनी को तोड़ कर रख दिया। बलराज साहनी यहाँ ख़ुश नहीं थे, वह दुखी रहने लगे। परीक्षित साहनी अपनी किताब में बताते हैं कि आख़िर में उनके पिता ने माना कि उनका बेटा सही था।
वह बोले कि बेटा तूने सही कहा था। यह घर हमारे लिए अच्छा नहीं है। इस घर में सब अपने-अपने कमरों में सिमट से गए हैं। इससे अच्छा तो हमारा पुराना घर था। कम-से-कम वहाँ सब एक दूसरे के क़रीब तो रहते थे, आते-जाते एक दूसरे से बातें तो करते थे।
बेटी की मौत का सदमा
इस घर में आने के बाद बलराज साहनी को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उनकी जवान शादीशुदा बेटी शबनम ने अचानक आत्महत्या कर ली। इस घटना ने बलराज साहनी को तोड़कर रख दिया। इस सदमे से वो कभी उबर नहीं पाए और इसी के चलते उन्हें दिल की बीमारी हो गई।

अपनी आख़िरी फिल्म ‘गर्म हवा’ के दौरान बलराज साहनी को एक ऐसा सीन शूट करना था जिसमें उनके किरदार की बेटी भी आत्महत्या कर लेती है। इस सीन को बलराज साहनी ने शूट तो कर लिया पर इसने उनकी बेटी की मौत के दर्द को उनके दिल में फिर से हरा कर दिया। अब उनका मन यहाँ से बुरी तरह उखड़ गया। इसके बाद बलराज साहनी इस आलीशान बंगले को छोड़कर पंजाब चले गए और वहीं एक छोटे से घर में रहने लगे।
बंगले से गुज़रते वक़्त आँखें कर लेते थे बंद
परीक्षित साहनी कहते हैं कि वह आलीशान बंगला ‘इकराम’ वक्त के थपेड़े सहता हुआ आज भी बुरी हालत में अपनी जगह खड़ा हुआ है। मैं जब भी उस रास्ते से गुज़रता तो अपनी आँखें बंद कर लेता था।

दिल का दौरा पड़ने से हुई मौत
बलराज साहनी के छोटे भाई और जाने-माने साहित्यकार भीष्म साहनी अपनी जीवनी में लिखते हैं कि बलराज साहनी ने धीरे-धीरे अभिनय में काफी कटौती कर दी ताकि वह अपने लेखन को ज़्यादा वक़्त दे सकें। उनकी आख़िरी फ़िल्म गर्म हवा थी।
वह 13 अप्रैल, 1973 का दिन था जब उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा और 59 साल की उम्र में बलराज साहनी ने हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

बलराज साहनी मार्क्सवादी विचारधारा के थे और मरते दम तक वह इस पर क़ायम रहे। अपने आख़िरी वक़्त के लिये उन्होंने कहा था कि जब मेरी मौत हो तब न किसी पंडित को बुलाना, न मंत्र पढ़वाना। जब मेरी अंतिम यात्रा निकले तो मेरे जनाज़े पर लाल झंडा ओढ़ा देना।
एक प्रतिभावान व्यक्तित्व
बलराज साहनी एक शानदार अभिनेता के साथ ही एक प्रतिभाशाली लेखक भी थे। शुरूआती दौर में उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखना शुरू किया लेकिन जल्द ही पंजाबी साहित्य के जाने-माने लेखक के तौर पर अपनी अलग पहचान क़ायम कर ली। उन्होंने पटकथा लेखन भी किया। साल 1951 में आई फ़िल्म ‘बाज़ी’ की पटकथा उन्होंने ही लिखी थी इस फिल्म को मशहूर एक्टर, डायरेक्टर और राइटर गुरुदत्त ने डायरेक्ट किया था और सदाबहार अभिनेता देव आनंद ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई थी।
सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और पद्मश्री सम्मान
1960 में वह पाकिस्तान गए और वहाँ से लौटकर उन्होंने ‘मेरा पाकिस्तानी सफ़र’ नामक किताब लिखी। इसके अलावा, उनकी किताब ‘मेरा रूसी सफ़रनामा’ के लिये उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था।
बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी- मेरी फ़िल्मी आत्मकथा। 1969 में भारत सरकार द्वारा बलराज साहनी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
साल 1973 में मुंबई में बलराज साहनी द्वारा स्थापित पंजाबी कला केंद्र ने उनके नाम पर एक पुरस्कार की स्थापना की, जो हर साल संस्थान द्वारा उत्कृष्ट कलाकारों को प्रदान किया जाता है।
बलराज साहनी का बेटे परीक्षित के साथ रिश्ता
परीक्षित साहनी किताब में लिखते हैं कि इस किताब में मैंने अपने पिता के साथ साझा की अपनी यादों को संजोया है।
मेरा और उनका रिश्ता कैसा था, मैं उनके किन कामों से प्रभावित हुआ.. ये सारी बातें मैंने इस किताब में शेयर की हैं।

वह कहते हैं कि पिता के साथ उनका एक अनोखा रिश्ता था। वह मेरे लिये एक दोस्त की तरह थे।
वह कहते थे कि मेरे पीछे सिगरेट क्यों पीते हो, मेरे सामने पियो। कभी कोई बात मुझसे मत छुपाना। परीक्षित सहनी ने पहली बार सिगरेट और वाइन अपने पिताजी के सामने ही पी थी।

हिंदी सिनेमा के लिये एक मिसाल
बलराज साहनी का अभिनय बेहद स्वाभाविक परिष्कृत शैली से परिपूर्ण था। उनके बेहतरीन अभिनय न सिर्फ उन्हें एक बेजोड़ और शानदार कलाकार के रूप में पहचान दी बल्कि हिंदी सिनेमा में अभिनय की एक अद्वितीय मिसाल के तौर पर भी क़ायम कर दिया।
बलराज साहनी अपने आदर्शों और सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान थे। वह एक आइडियल मॉडल के रूप में पहचाने गए क्योंकि उन्होंने कभी किसी ऐसे विज्ञापन आदि के लिये काम नहीं किया जो उनके सिद्धांतों के विपरीत हो या जिस पर किसी प्रकार का कोई आरोप हो।
बलराज साहनी जैसे अभिनेता और व्यक्तित्व विरले ही होते हैं। वह स्वयं में अद्वितीय थे, हैं और रहेंगे।