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कृषक, कृषि (Farmer and Agriculture) और नीति

Farmer Agriculture and Policies

कृषक और कृषि (Farmer and Agriculture) को सुरक्षित, संरक्षित और इससे सम्बन्धित उत्पादों को व्यापार की वस्तु बनाने की आवश्यकता केवल इसलिए नहीं है कि वह देश में सर्वाधिक उपेक्षित हो गयी है, बल्कि इसलिए भी है कि कृषक देश का अन्नदाता है। आश्चर्यजनक बात यह है कि कृषक नाम आते ही हमारे ज़हन में एक ऐसी तस्वीर बनती है, जिसमें मैले-कुचैले कपड़े पहना व्यक्ति खेतों में दिखता है, जो केवल दया और उपेक्षा का पात्र होता है। दया इस संदर्भ में कि वह ग़रीब है और उपेक्षा इस संदर्भ में कि वह गंदे कपड़ों में है। जिसकी मेहनत का फल रंग-बिरंगी रोशनी में सराबोर प्रतिष्ठानों तथा हमारी थालियों में होता है।

दरअसल,सरकार कृषकों की आय दोगुनी करने के क्षेत्र में समय-समय पर नीतिगत पहलें करती रही है, जिसमें कृषिगत उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए और वैश्विक कृषि निर्यात में देश की भागीदारी बढ़ाने के लिए ‘नई कृषि निर्यात नीति’ को मंज़ूरी देना शामिल है। सरकार के इस कदम से कृषक हितैषी समूह में प्रसन्नता की लहर देखी गई, क्योंकि इससे वैश्विक कृषि बाज़ार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने में मदद मिलेगी और 2022 तक कृषक आय को दोगुना किया जा सकेगा।

इसके कारणों पर ग़ौर करें तो पिछले तीन वर्षों से वैश्विक बाज़ार में भारत का कृषि निर्यात लगातार कम हुआ है। वहीं पिछले एक दशक में भारत के कृषि क्षेत्र में कुछ नीतिगत सुधारों की बदौलत उत्पादन में वृद्धि देखी गई है। यह वृद्धि न केवल खाद्यानों की पूर्ति के संदर्भ में ही हुई है, बल्कि सरप्लस उत्पादन से खाद्यान्न वस्तुओं की घरेलू कीमतों में गिरावट के रूप में भी देखी गई है। साथ ही निर्यात तथा उचित मूल्य के अभाव में कृषि क्षेत्र में किसानों का रुझान कम हुआ है, जो भारत की खाद्य सुरक्षा जैसे सामाजिक मुद्दों की दृष्टि से उचित नहीं है। वहीं किसानों की ऋणग्रस्तता ने कृषक आत्महत्याओं जैसी घटनाओं को बढ़ावा दिया है, जिससे सरकार पर क़र्ज़ माफी के लिए दबाव बढ़ा है। परिणामस्वरूप, बैंकों का एनपीए यानि नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स भी बढ़ा है। ग़ौरतलब है कि बैंकों को इस समस्या से निकालने के लिए सरकार द्वारा बजट 2019-20 में 70 हज़ार करोड़ रुपये के पुनर्पूंजीकरण की व्यवस्था की गई है।

अगर आंकड़ों पर नज़र डालें, तो वर्ष 2013-14 में भारत का कृषि निर्यात 42.9 अरब डॉलर था, जो 2016-17 में घटकर मात्र 33.4 अरब डॉलर पर पहुँच गया। वहीं कृषि वस्तुओं के वैश्विक निर्यात में भागीदारी पर ग़ौर करें, तो भारत विश्व के 15 प्रमुख निर्यातकों में से एक होने के बावजूद, इसकी निर्यात भागीदारी महज़ 1.25 फ़ीसदी के आस-पास है। जबकि वैश्विक कृषि उत्पादन में यह भागीदारी लगभग 8 फ़ीसदी है। अगर देखा जाए, तो इस नीति को लाने के पीछे राजनीतिक घोषणाओं के अलावा आरसीईपी यानि द रीजनल कॉम्प्रेहेंसिव इकॉनमिक पार्टनरशिप में शामिल होने को लेकर विरोध जताने वाले तीन प्रमुख क्षेत्रों में कृषि क्षेत्र भी रहा है, जिसमें प्रमुख रूप से भारतीय कृषि उत्पादों का वैश्विक गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं कर पाना और अवसंरचना की कमी जैसे मुद्दे शामिल रहे हैं।

उपर्युक्त चर्चा के बाद सरकार द्वारा वर्ष 2018 में पारित कृषि निर्यात नीति के प्रावधानों को समझना ज़रूरी है। जिसके माध्यम से कृषि क्षेत्र का निर्यात बढ़ाकर 60 अरब डॉलर तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है। इसे परिचालन  तथा रणनीतिक उपाय जैसे दो भागों में बाँट कर देखा जा सकता है।

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उपाय 

परिचालन सम्बन्धी उपायों में क्लस्टर यानी खेत से लेकर बाज़ार तक पूरी एक चेन विकसित करने जैसी ढाँचागत सुविधाओं को आधुनिक मानदंडों के अनुसार विकसित करने पर ज़ोर दिया गया है। जिसके लिए इस क्षेत्र में निजी निवेश को आकर्षित करने पर बल दिया गया है। साथ ही उत्पादों की गुणवत्ता बेहतर करने के लिए रिसर्च एंड डेवलपमेंट जैसी गतिविधियों को बढ़ाने और इन सभी उपायों को और बेहतर बनाने तथा उनका अनुपालन बढ़ाने के लिए रेगुलेशन का ढाँचा मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया गया है।

वहीं स्ट्रैटजिक उपायों में नीतिगत बदलावों की बात कही गई है। जिसमें जैविक उत्पादों पर लगे सभी तरह के प्रतिबंधों को समाप्त करने और कुछ वस्तुओं पर कभी बैन नहीं लगाने का प्रावधान शामिल है। साथ ही पूरे देश में एक समान मण्डी फीस लगाने तथा लैंड लीज़ के नियमों में बदलाव पर ज़ोर दिया गया है। चूंकि कृषि राज्य सूची का विषय है और राज्य अपने यहाँ कृषि मण्डियों के रेगुलेशन के लिए अलग-अलग नीति तथा ए.पी.एम.सी. (एग्रीकल्चरल प्रोडूस मार्किट कमेटी) कानून लागू करते हैं तथा अलग-अलग राज्यों की भौगोलिक स्थिति के अनुसार उत्पादों में विविधता होती है। इस आधार पर राज्यों की भागीदारी बढ़ाने के लिए उन्हें साथ लेकर चलने पर बल देने के साथ ही आधारभूत सुविधाओं के विकास के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी को आकर्षित करने पर फोकस किया गया है। इन बातों को समझने के बाद भारत के कृषक तथा कृषि क्षेत्र पर होने वाले इसके संभावित लाभों को समझने से पहले भारतीय कृषक तथा कृषि के समक्ष मौजूद समस्याओं को समझना ज़रूरी है।

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मानसून का जुआ 

दरअसल, भारत में कृषि के एक बड़े क्षेत्र की निर्भरता आज भी मानसून पर होने के कारण इसे ‘मानसून का जुआ’ जैसी संज्ञा दी जाती है। मानसून की अनिश्चितता से कृषक की खाद्य सुरक्षा तो प्रभावित होती ही है साथ ही उसकी आजीविका भी इस प्रभाव से अछूती नहीं रहती है। वहीं लगातर बढ़ती जनसंख्या के कारण कृषि भूमि का पुनर्संगठन और उप-विभाजन, तकनीकी उपयोग की सीमाएं निर्धारित करता है, लिहाज़ा पैदावार भी सीमित होती है। इसके बाद भी तमाम जुगत के बाद यदि पैदावार ठीक भी हो जाए, तो भी उसकी बिक्री और उचित मूल्य की समस्या होती है क्योंकि मंडी नज़दीक नहीं होने के कारण कच्ची फसलें ख़राब हो जाती हैं। कोल्ड स्टोरेज तथा प्रोसेसिंग यूनिट की कमी और उन्हें बिजली की आपूर्ति कम होने तथा उनकी धारण क्षमता सीमित होने से फसलों की बर्बादी और अधिक होती है। ऐसे में कृषक न्यूनतम मूल्य पर बिचौलियों को अपनी फसल बेचने के लिए बाध्य होता है।

हालांकि, सुधार के प्रयास अवश्य किए गए हैं, परंतु बेहतर अवसंरचना और नीतियों के क्रियान्वयन की समस्या के कारण आवश्यक सूचनाएँ कृषकों तक नहीं पहुँच पाती हैं, लिहाज़ा उसका लाभ सही व्यक्ति तक पहुँचने की बजाय गलत हाथों में पहुँच जाता है।

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भूमि की हकबंदी और हदबंदी की समस्या?

एक बड़ी समस्या कृषि भूमि की हकबंदी और हदबंदी की भी है, जिसमें सुधार का प्रयास तो किया गया है, परंतु इसका प्रभाव सीमित क्षेत्रों में ही रहा है। इसके अलावा भूदान आन्दोलन का बड़े पैमाने पर मौखिक होने और भविष्योन्मुखी समाधान नहीं होने के कारण दानकर्त्ता के उत्तराधिकारियों द्वारा दिये गए व्यक्ति को भूमि से बेदख़ल किया जाना भी एक बड़ी समस्या रही है। साथ ही शिक्षा के अभाव के कारण भूमि की प्रकृति के अनुसार फसलों का चयन और फसल चक्रण जैसी समस्या आम रही है, जिसने मृदा की उत्पादन क्षमता को कम किया है।

हालांकि, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत की विभिन्न सरकारों द्वारा इन समस्याओं के समाधान के लिए कई प्रयास किए गए हैं, जैसे- संविधान के अनुछेद-31 में संशोधन कर सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से निरसित कर दिया गया था। हकबन्दी और हदबन्दी जैसे कानून लागू कर क्रमशः एक निश्चित समय तक किसी भूमि पर कृषि कार्य करने वाले व्यक्ति को मालिकाना हक देना तथा एक व्यक्ति के पास जोतों की सीमा निर्धारित की गई और जोतों का सीमित आकार देखते हुए संविदा कृषि, लिजिंग तथा कृषि के साथ पशुपालन जैसे कार्यों को बढ़ावा दिया गया।

वहीं मानसून पर निर्भरता को कम करने के लिए नहर प्रणाली के विकास के साथ सब्सिडी आधारित सोलर पम्प जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। साथ ही सूखा और अकाल जैसी घटनाओं को ध्यान में रखते हुए फसल बीमा जैसी सुविधाएँ दी जा रही हैं। यद्यपि यह सीमित फसलों पर ही लागू होता है, जबकि अधिशेष उत्पादन के कारण कृषकों का हित सुनिश्चित करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जा रहा है, वहीं कुछ राज्यों में निजी ख़रीद के कारण होने वाले घाटे के लिए ‘भावान्तर योजना’ भी प्रारंभ की गई है। इस क्षेत्र में एक पहलकारी क़दम के रूप में मृदा स्वास्थ्य कार्ड तथा किसान कॉल सेन्टर के द्वारा सही समय व फसल के चुनाव में सहयोग दिया जा रहा है।

जहाँ तक फसल बर्बादी की समस्या है तो इसके समाधान के लिए कोल्ड स्टोरेज और फूड प्रोसेसिंग जैसी सुविधाओं को बढ़ाने के प्रयास किये गए हैं। इसके लिए असम, मिज़ोरम तथा मणिपुर में भी मेगाफूड पार्क की स्थापना की जा रही है। साथ ही मंडी के क्षेत्र में स्टेट्स ए.पी.एम.सी. तथा ई-नाम जैसी मण्डियों की स्थापना हो रही है। परंतु, फिर भी कृषिगत वस्तुओं की वैश्विक बाज़ार में पहुँच तथा कृषक अभी भी आवश्यक लाभ से दूर हैं।

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जहाँ तक नई कृषि निर्यात नीति के लाभ की बात है, तो यह किसानों के साथ-साथ व्यापारियों को भी लाभ पहुँचाने वाली है क्योंकि अभी तक कृषि वस्तुओं के उचित रख-रखाव की समस्या के कारण फसलों की बर्बादी अधिक होती थी, अब कोल्ड स्टोरेज, फूड प्रोसेसिंग जैसी अवसंरचना यूनिट की स्थापना के ज़रिये इस समस्या का समाधान किया जा सकेगा, साथ ही इस क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी भागीदारी के बढ़ने से इस व्यवस्था में व्यापक सुधार होने की संभावना है। जिससे उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार होगा और इन वस्तुओं की वैश्विक मांग में वृद्धि होगी तथा अभी तक उपेक्षित समझे जाने वाले इस क्षेत्र में निर्यातकों का रुझान और रोज़गार दोनों बढ़ेंगे। इस क्षेत्र में निजी निवेश से गुड एग्रीकल्चरल प्रेक्टिसेज़ बढ़ेंगी, जिससे भारत की वैश्विक कृषि बाज़ार भागीदारी में इज़ाफ़ा होगा।

चुनौतियाँ

यद्यपि, इसके समक्ष चुनौतियों भी कई हैं जैसे- उत्पादित वस्तुओं में उचित प्रमाणीकरण तथा वैल्यू एडीशन की समस्या। वैश्विक बाज़ार में बिना प्रमाणीकरण के भारतीय कृषि उत्पादों का प्रतिस्पर्द्धा करना सम्भव नहीं है। क्योंकि विश्व की लगभग 25 मल्टीनेशनल कॉर्पोरेट्स का कहना था कि हम 100 फ़ीसदी सर्टिफाइड वस्तुएँ ही ख़रीदेंगे। ऐसा देखा जाता है कि देश में किसी खाद्यान की कमी होती है तो सरकार उसका निर्यात प्रतिबन्धित कर देती है, जिससे व्यापार हतोत्साहित होता है। इससे निर्यातक द्वारा आयातक को पुनःविश्वास में लेना एक बड़ी चुनौती बन जाती है और अंततः निर्यातक का हित प्रभावित होता है।

भारत की भौगोलिक विविधता अधिक होने के कारण कई क्षेत्र प्रोडक्ट स्पेसिफिक हैं। ऐसे में अलग-अलग क्षेत्रों की उनके उत्पाद के अनुसार पहचान करना और उसके उत्पादन के लिए राज्य सरकारों को विश्वास में लेना बड़ी चुनौती है। भारत में अभी तक कृषिगत वस्तुओं के निर्यात की ज़िम्मेदारी एपिडा यानी कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण द्वारा निभाई जाती है, जिससे निर्यात संबंधी कार्यों में आवश्यक शोध और देरी की संभावना बनी रहती है। हमारे पास अभी भी पर्याप्त कमोडिटी बोर्ड नहीं हैं और जो हैं, उनमें अवसंरचनात्मक कमियां हैं।

हालाँकि, कृषि क्षेत्र में उत्पाद अधिशेष तो है, परंतु कृषक बाज़ार तथा वैल्यू चेन के मध्य आवश्यक सामंजस्य के अभाव में उत्पादों की बर्बादी तथा वैल्यू एडीशन की समस्या है। भारत में आज भी प्रोडक्शन एप्रोच की समस्या है, लिहाज़ा कम मूल्य पर गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं का उत्पादन नहीं हो पाता, जिससे हमारे उत्पाद प्रतिस्पर्द्धी नहीं होते हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में लगने वाले मंडी टैक्स उत्पादन लागत बढ़ाते हैं, जिससे वस्तुओं की प्रतिस्पर्द्धा क्षमता में कमी आती है। साथ ही किसानों तक अवश्यक जानकरी पहुँचाना, उन्हें मंडी से जोड़ना और लाभ देना अभी भी एक बड़ी पहेली है।

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निर्यात का दायरा बढ़ाने की आवश्यकता

  • बहरहाल, सरकार को चाहिये कि वह गुड एग्रीकल्चर प्रेक्टिसेज़ को बढ़ाने के लिए व्यापक सर्वेक्षण को बढ़ावा दे।
  • वैश्विक बाज़ार में भारत के चावल, भैंस का मांस तथा मरीन उत्पादों की माँग अधिक है। अतः भारत को निर्यात का दायरा बढ़ाने की आवश्यकता है, इसके लिए कम-से-कम 20 से 25 एक्सपोर्ट प्रमोशन बोर्ड की स्थापना करनी होगी। एपिडा के अंतर्गत अलग-अलग उत्पादों के लिए सब सेक्टर बनाने होंगे जिससे उत्पादों के निर्यात को बढ़ाया जा सके।
  • कोल्ड स्टोरेज और फूड प्रोसेसिंग यूनिट की स्थापना तथा क्रियान्वयन को प्रोत्साहित करने के लिए करों में छूट देनी की नीति पर विचार करना होगा।
  • निर्यात की वस्तुओं की पहचान और उन्हें बढ़ावा देने के लिए एक एक्सपर्ट पॉलिसी तैयार करने के साथ ही इसमें उत्पादकों और निर्यातकों की भूमिका बढ़ानी होगी, जिससे निर्यात प्रोत्साहन को बल मिल सके।
  • इस क्षेत्र में दीर्घकालिक सर्वेक्षण की जगह छमाही और वार्षिक आधार पर उत्पादन, निर्यात तथा मांग का मूल्यांकन करना ज़रूरी है, साथ ही क्लस्टर एप्रोच के द्वारा मूल्यांकन में पिछले अनुभवों को आधार बनाना कारगर होगा।

दक्ष क्रियाविधि की आवश्यकता

हालांकि, नई कृषि निर्यात नीति में मौद्रिक नीति पर ध्यान दिया गया है, परंतु कृषकों को उनके उत्पाद हेतु त्वरित भुगतान के लिए दक्ष क्रियाविधि अपनानी होगा, जिससे कृषक को उत्पादन हेतु निवेश और प्रोत्साहन मिल सके। साथ ही निर्यात की वस्तुओं को तत्काल परिवहन उपलब्ध कराने की व्यवस्था करनी होगी। क्योंकि आर्थिक समीक्षा 2018-19 में कहा गया है कि वर्ष 2014-15 में कृषि क्षेत्र की विकास दर 0.2 फ़ीसदी नकारात्मक थी, जो वर्ष 2016-17 में 6.3 फ़ीसदी हो गई थी, किन्तु वर्ष 2018-19 में यह घटकर 2.9 फ़ीसदी पर पहुँच गई। वहीँ वर्ष 2017-18में कृषि क्षेत्र में सकल पूंजी निर्माण 15.2 फ़ीसदी कम हुआ। साथ ही उर्वरकों के उपयोग के बाद भी उत्पादन लगातार कम होता जा रहा है। लिहाज़ा ज़ीरो बजट सहित जैविक और प्राकृतिक कृषि तकनीक, सिंचाई और जल के सतत प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता को बढ़ने की बात कही गई है।

ग़ौरतलब है कि कृषि में उत्पादन लागत और लाभ के अंतर को देखते हुए ही आर्थिक समीक्षा में उसके वैविधिकरण पर ज़ोर दिया गया है जिसमें डेयरी उद्योग, पशुधन का विकास और मत्स्य पालन को बढ़ावा देना शामिल है। साथ ही बजट 2019-20 पर ग़ौर करें तो कृषि और किसानों को राहत देने के लिए सरकार ने 6000 रुपये सालाना सहायता राशि देने की घोषणा की है। जिसके लिए कृषि क्षेत्र हेतु कुल 149,981 करोड़ रुपये बजट का प्रावधान किया गया है।

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निष्कर्ष

अंततः इस बात में कोई संदेह नहीं है कि देश का कृषक और कृषि दोनों ही उपेक्षित रहे हैं। ऐसे में देखना यह है कि नई कृषि निर्यात नीति, 2022 तक भारत में कृषक आय को दोगुना करने में कितनी कारगर साबित होगी? परंतु यदि 2022 तक के सीमित समय में इसको पूरा करना है तो इसके लिए  प्रावधानों के साथ राजनीतिक इच्छाशक्ति और क्रियान्वयन पर बल देना होगा, जो कृषि को बढ़ावा देने के साथ महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में एक बड़ा क़दम भी साबित होगा क्योंकि इस क्षेत्र में महिलाओं का भी एक बड़ा भाग कार्यरत है।

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