प्रसिद्ध बिरहा सम्राट पदम श्री हीरालाल यादव ने ली अंतिम सांस
पदम श्री पुरस्कार से सम्मानित भारत के प्रसिद्ध बिरहा सम्राट हीरालाल यादव (Hiralal Yadav) का 12 मई, 2019 को वाराणसी में निधन हो गया। वे 93 वर्ष के थे। ये पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थे और उनका इलाज चल रहा था।
ध्यातव्य है कि 16 मार्च, 2019 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इन्हें पदम श्री से सम्मानित किया था। अस्वस्थता के बाद भी वह सम्मान ग्रहण करने राष्ट्रपति भवन पहुंचे थे। पिछले 70 वर्षों में पहली बार बिरहा को सम्मान मिला था।
बिरहा गायक हीरालाल यादव के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शोक प्रकट करते हुए ट्वीट कर कहा कि पदम श्री पुरस्कार से सम्मानित वाराणसी के बिरहा गायक हीरालाल यादव जी के निधन से अत्यंत दुख हुआ। दो दिन पहले ही बातचीत कर उनका हालचाल जाना था। उनका निधन लोकगायकी के क्षेत्र के लिए अपूरणीय क्षति है। शोक की इस घड़ी में मेरी संवेदनाएं उनके प्रशंसकों और परिवार के साथ हैं।
हीरालाल यादव (Hiralal Yadav) के बारे में:
- वर्ष 1936 में चेतगंज स्थित सरायगोवर्धन में जन्मे हीरालाल का बचपन ग़रीबी में गुज़रा था।
- आम तौर पर शौकिया गाने वाले हीरालाल ने अपनी सशक्त आवाज़ के चलते राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान बनाई और आगे चलकर ये बिरहा सम्राट के रूप में प्रसिद्ध हुए।
- शुरुआत में वे अपने साथी बुल्लू के साथ हीरा-बुल्लू जोड़ी से लगभग सात दशकों तक गांव-गांव जाकर लोगों को बिरहा से परिचित कराते रहे।
- वर्ष 1962 से इन्होंने आकाशवाणी व दूरदर्शन से बिरहा की प्रस्तुति देना आरंभ किया जिसे देशभर में काफ़ी सराहा गया।
- हीरालाल पदम श्री और यश भारती से सम्मानित थे।
- हीरालाल के परिवार में उनकी पत्नी श्यामा देवी, छह बेटे तथा तीन बेटियां हैं।
बिरहा गायन:
उत्तर प्रदेश और बिहार में पर्वों-त्योहारों अथवा मांगलिक अवसरों पर ‘बिरहा’ गायन की परम्परा रही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बिहार के भोजपुरीभाषी क्षेत्र में बिरहा लोकगायन की एक प्रचलित विधा है। बिरहा गायन के दो प्रकार सुनने को मिलते हैं। पहले प्रकार को खड़ी बिरहा कहा जाता है और दूसरा रूप है मंचीय बिरहा। खड़ी बिरहा में वाद्यों की संगति नहीं होती जबकि मंचीय बिरहा में वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
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दरअसल, बिरहा की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के आरंभ में मानी जाती है। दरअसल विशेषकर जब ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर महानगरों में मज़दूरी करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी थी। ऐसे में जीविका के लिए लम्बी अवधि तक अपने घर-परिवार से दूर रह कर दिन भर के कठोर श्रम के बाद रात्रि में अपने विरह व्यथा को मिटाने के लिए छोटे-छोटे समूह में ये लोग बिरहा का ऊँचे स्वरों में गायन किया करते थे। किसी विशेष पर्व पर मन्दिर के परिसरों में ‘बिरहा दंगल’ का प्रचलन भी रहा है।