क्या है Iranian Revolution… ईरान की इस्लामिक क्रांति
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
प्राचीन काल में ईरान को पर्शिया या फारस के नाम से जाना जाता था। ईरानी बादशाहों की हुकूमत यूनान से हिंदुस्तान तक फैली हुई थी और यही वजह है कि ईरान से भारत का संबंध सदियों पुराना है। विजयनगर साम्राज्य हो या वर्तमान समय, ईरान सदियों से भारत के लिए सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से बेहद ख़ास रहा है। भारत के प्राचीन शहर विजयनगर के शासक संगम वंश के देवराय द्वितीय के काल में ईरान से एक प्रसिद्ध दूत अब्दुर्रज़्ज़ाक़ भारत आया था। अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ईरानी बादशाह शाहरुख़ का दूत था। अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ने न सिर्फ़ तत्कालीन भारत के बाज़ारों और आर्किटेक्चर का खूबसूरती से वर्णन किया बल्कि अपने अनुभवों पर यात्रा संस्मरण भी लिखा जिसमें उसने भारत और ईरान के रिश्ते बढ़ाए जाने पर ज़ोर दिया था।
अंग्रेज़ों से आज़ादी के बाद भी भारत ने ईरान से सांस्कृतिक रूप से निकटता बरकरार रखी। लेकिन तब का ईरान आज के ईरान जैसा नहीं था। वह वर्तमान ईरान से बिल्कुल अलग था।
ईरान में था पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव
एक समय ऐसा भी था जब ईरान में पश्चिमी सभ्यता का ज़बरदस्त प्रभाव था। आज की तरह वहाँ न तो पहनावे, रहन-सहन या खान-पान को लेकर कोई पाबंदी थी और न ही धार्मिक पाबंदियाँ ही थीं। लेकिन ये दौर था ईरान में इस्लामिक क्रांति (Iranian Revolution) से पहले का दौर। उस समय ईरान को इस्लामी देशों के बीच सबसे अधिक आधुनिक माना जाता था। यहाँ पश्चिमी सभ्यता का बोलबाला इस क़दर था कि ईरान का माहौल पेरिस या लंदन जैसे शहरों से किसी मायने में कम नहीं था। तब ईरान, अमेरिका और यूरोपीय देशों की तरह खुले विचारों वाला था। 30 के दशक में ईरान के पहलवी वंश के शासक रेज़ा शाह द्वारा उठाया गया एक क़दम महिलाओं की आज़ादी के लिहाज़ से बेहद क्रांतिकारी साबित हुआ। उस समय उन्होंने ईरान में हिजाब और बुर्का पहनने को बैन कर दिया था। ऐसे में लोगों ने इसे गैर-इस्लामी और ईरानी-विरोधी क़दम माना और पुरुषों ने महिलाओं का घर से निकलना बंद कर दिया। इसके बाद उनके बेटे मोहम्मद रेज़ा पहलवी ईरान के शासक बने, लेकिन वह भी पश्चिमी सभ्यता के पक्षधर थे। नतीजतन, जनता रेज़ा पहलवी को अमेरिका और इंग्लैंड की ‘कठपुतली’ कहने लगी।
मोहम्मद रेज़ा का व्हाइट रेवोल्य़ूशन
ईरान में इस्लामिक क्रांति की शुरुआत 1979 में मानी जाती है, लेकिन इसके बीज 60 के दशक में ही पड़ गए थे, जब ईरान के शासक मोहम्मद रेज़ा पहलवी ने देश को आधुनिकता की ओर ले जाने की एक पहल की। अयातुल्लाह ख़ोमैनी ने शाह के इस राजनीतिक आंदोलन को व्हाइट रेवोल्य़ूशन नाम दिया और इसे गैर-इस्लामी बताते हुए इसमें शामिल होने से इन्कार कर दिया। जनता ने इसे इस्लामिक मूल्यों का हनन माना और इसका विरोध किया क्योंकि यह ईरान को पश्चिमी देशों के मूल्यों की तरफ ले जा रहा था।
इसके अलावा, रेज़ा ने ईरान का तेल भंडार अमेरिका और इंग्लैंड को सौंप दिया था जिसको ईरानी जनता बर्दाश्त नहीं कर रही थी और उन्होंने इसका विरोध किया। जनता के आक्रोश को कुचलने के लिए पहलवी ने बर्बर तकरीका अपनाया। रेज़ा शाह पहलवी बहुत ही क्रूर तानाशाह साबित हुआ। एक तरफ़, तो वह देश के तेल भंडार का बड़ेहिस्से पर पहले ही अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों को इख्तियार सौंप चुका था जबकि दूसरी तरफ़, अरबों डॉलर अमेरिका से हथियार खरीदने पर खर्च कर रहा था।
इससे ईरान की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित होने लगी। हालात और बिगड़ने लगे तथा 1970 तक आते-आते ईरान के लोग शाह की सरकार से पूरी तरह से तंग आ चुके थे।
रेज़ा पहलवी के ख़िलाफ़ तीव्र हुआ विद्रोह
मोहम्मद रेज़ा पहलवी के खिलाफ देश में विरोध प्रदर्शन होने लगे और धीरे-धीरे मौलवियों के समूह ने प्रदर्शनों का नेतृत्व संभाल लिया। इनका नेतृत्व फ्रांस में रह रहे आयोतुल्लाह रुहोल्लाह ख़ोमैनी कर रहे थे। ईरानी क्रांति के अग्रणी नेता और इस्लामी कानून के विशेषज्ञ ख़ोमैनी, शाह के सबसे बड़े आलोचक थे और उस समय निर्वासन में देश से बाहर रह रहे थे।
जनवरी 1979 तक पूरे देश में गृहयुद्ध जैसे हालात हो गए और प्रदर्शनकारियों द्वारा ख़ोमैनी की वापसी की तीव्र मांग होने लगी। ख़ोमैनी और उनके समर्थकों ने शाह को एक कमज़ोर और नाक़ाबिल नेता बताया। उन्होंने स्वयं को सुप्रीम लीडर घोषित किया। वह ईरान को इस्लामिक गणतंत्र बनाना चाहते थे। हालात बेकाबू होते देख शाह, परिवार सहित ईरान छोड़ कर अमेरिका चले गए और फरवरी 1979 में ख़ोमैनी की फ्रांस से स्वदेश वापसी हुई।
क्यों और कब हुई थी ईरान की इस्लामिक क्रांति?
ईरान की इस्लामिक क्रांति साल 1979 में शुरू हुई थी। इसे फ़ारसी में इन्क़लाब-ए-इस्लामी भी कहा जाता है। इस क्रांति का सबसे बड़ा कारण था अमेरिकी समर्थक शाह के शासन का क्रूर, भ्रष्ट और पश्चिमी सभ्यता का समर्थक होना। शाह 1941 से सत्ता में थे लेकिन उन्हें निरंतर धार्मिक नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ रहा था। यह क्रांति खुलेपन के खिलाफ थी। इस क्रांति के ज़रिये मोहम्मद रेज़ा पहलवी को अपदस्थ कर दिया गया जिसके साथ ही वहाँ पहलवी वंश का अंत हो गया। मोहम्मद रेज़ा पहलवी ईरान के आखिरी शाह थे।
अप्रैल 1979 में ईरान में जनमत संग्रह हुआ जिसमें 98% से भी अधिक लोगों ने ईरान को इस्लामिक रिपब्लिक बनाने के पक्ष में वोट किया। इसके बाद ईरान ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान’ हो गया और आयोतुल्लाह रुहोल्लाह ख़ोमैनी देश के सर्वोच्च नेता बन गए और मृत्युपर्यंत इस पद पर बने रहे। इसी के साथ देश में नया संविधान भी लागू हो गया नए संविधान के बाद ईरान में शरिया कानून लागू हो गया जिसमें, विशेषकर महिलाओं के लिये, कई सारी पाबंदियाँ लगा दी गईं। अब महिलाओं को हिजाब और बुर्का पहनना ज़रूरी कर दिया गया। इस्लामिक क्रांति ने शिया बहुल ईरान को पूरी तरह से बदल दिया।
ईरान में अब आयोतुल्लाह रुहोल्लाह ख़ोमैनी के उत्तराधिकारी अली ख़ामैनी देश के सर्वेसर्वा हैं। ईरान का नया शासन एक धर्मतंत्र है, जहाँ सर्वोच्च नेता धार्मिक इमाम होता है और शासन चलाने के लिए एक निर्वाचित राष्ट्रपति होता है।
क्यों महत्त्वपूर्ण है ईरान की इस्लामिक क्रांति?
इस क्रांति को फ्रांसीसी क्रांति और रूस की बोल्शेविक क्रांति के बाद विश्व की सबसे महान क्रांति कहा जाता है क्योंकि इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा और वर्तमान विश्व के राजनैतिक और कूटनीतिक परिदृश्य पर कहीं-न-कहीं ईरान की इसी क्रांति का प्रभाव देखने को मिलता है। इस क्रांति ने एक तरफ जहाँ पूरे मिडिल ईस्ट में कई घटनाओं की एक श्रृंखला को जन्म दिया वहीं दूसरी तरफ, क्षेत्रीय संघर्षों को भी हवा दी।
एक ज़माने में अमेरिका और ईरान के बीच गहरी दोस्ती हुआ करती थी लेकिन इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान में सब कुछ बदल गया और इस क्रांति के बीच एक और महत्त्वपूर्ण घटना भी हुई थी जिसने अमेरिका जैसे ताकतवर देश को भी कमज़ोर कर दिया। इसी के परिणामस्वरूप ऑपरेशन ईगल क्लॉ की घटना हुई।
ऑपरेशन ईगल क्लॉ
दरअसल, अक्तूबर 1979 में जब रेज़ा देश छोड़कर अमेरिका चले गए तो ईरान के लोग रेज़ा की वापसी और उनको सज़ा देने की मांग करने लगे। रेज़ा के ख़िलाफ़ लोगों में ग़ुस्सा इस क़दर बढ़ गया चुका था कि नवंबर 1979 में तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास के बाहर हज़ारों छात्रों की भीड़ ने अमेरिकी दूतावास पर धावा बोल दिया और 63 अमेरिकियों को बंधक बना लिया। जबकि अमेरिकी राजनयिक स्टाफ के तीन अतिरिक्त सदस्यों को ईरानी विदेश मंत्रालय में हिरासत में लिया गया। विरोधियों की मांग थी कि अमेरिका मोहम्मद रेज़ा को उनके हवाले कर दे, लेकिन अमेरिका ने इस बात को मानने से इन्कार कर दिया। नतीजतन, लगभग 444 दिनों तक अमेरिकी लोग इन विरोधियों के बंधक बने रहे।
ईरान के नए नेता आयोतुल्लाह रुहोल्लाह ख़ोमैनी ने अमेरिका से शाह को वापस करने का आह्वान किया। हालाँकि, नवंबर के मध्य तक 13 बंधकों को मुक्त करा लिया गया। बाक़ी 53 अमेरिकी बंधकों को छुड़वाने के लिये पहले तो अमेरिका ने कूटनीति से मामले को हल करने की कोशिश की लेकिन जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर के सभी प्रयास विफल हो गए तो उन्होंने सैन्य कार्रवाई की मंज़ूरी दे दी। इसके लिये एक गुप्त अभियान चलाया।
इस अभियान को नाम दिया गया ‘ऑपरेशन ईगल क्लॉ’ (Operation Eagle Claw)। इस अभियान की बागडोर कर्नल चार्ली बेकविद को सौंपी गई । मिशन के तहत अमेरिकी सैनिकों को रात के समय चुपके से जाकर अपने नागरिकों को बचाना था। 24 अप्रैल, 1980 को अमेरिकी दस्ता निकला लेकिन रेतीले तूफान में फँस गया जिससे कई हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गए और 8 अमेरिकी सैनिक मारे गए। अमेरिका ने ऑपरेशन टाल दिया।
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इसी बीच इराक ने ईरान पर हमला कर दिया जिसमें अमेरिका ने इराक का साथ दिया। उधर अमेरिका में 20 जनवरी, 1981 को अमेरिका के नए राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने शपथ ली। 1981 की शुरुआत में अल्जीरिया ने ईरान और अमेरिका के बीच बातचीत में मध्यस्थता की। इसके बाद अमेरिका ने ईरान के ऊपर से तमाम प्रतिबंध हटा लिये और ईरान ने अमेरिका के बाक़ी बंधकों को रिहा कर दिया।