प्रधानमंत्री की श्रीलंका (Sri Lanka) और मालदीव (Maldives) की यात्रा के मायने
विश्व के सभी देश अपनी विदेश नीति के निर्धारण में कुछ मुलभूत सिद्धातों, हितों एवं उद्देश्यों का पालन करते हैं। सिद्धातों में लोकतांत्रिक, लोकतांत्रिक समाजवाद, साम्यवादी या पूंजीवादी व्यवस्था और हितों में सामरिक, रणनीतिक, भू-राजनीतिक या भू-आर्थिक हो सकता है जबकि उद्देश्यों में पड़ोसियों के मध्य काउन्टरबैलेंस, आन्तरिक व बाह्य सुरक्षा, बाज़ार की तलाश, राजनीतिक स्थिरता और उसके ज़रिये अपने देश का सामाजिक आर्थिक विकास सुनिश्चित करना शामिल होता है। इस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र अपनी विदेश नीति के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने संबंधों का निर्धारण करते हैं। विदेश नीति की झलक प्राचीन काल से ही देखने को मिलती है जहाँ विभिन्न साम्राज्यों के मध्य आपसी सहयोग के लिए राजदूतों को माध्यम बनाया जाता था। इस रूप में वह विदेश नीति के निर्धारण और विकास के प्रारम्भिक चरण का द्योतक है।
हालाँकि, वर्तमान सन्दर्भ में विदेश नीति एक नवीन अवधारणा के रूप में मौजूद है जिसको विभिन्न देशों के मध्य सामाजिक, सांस्कृति, धार्मिक, भू-रणनीतिक और भू-आर्थिक जैसे निर्धारक तत्वों के रूप में देखा जा सकता है और भारत सरकार इन्हीं तत्वों के ज़रिये अपने हितों की पूर्ति का प्रयास कर रही है।
दरअसल, भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान हिंद-महासागर में स्थित द्विपीय देश मालदीव (Maldives) और श्रीलंका (Sri Lanka) की यात्रा की। इस यात्रा के ज़रिये उन्होंने भारत के पारंपरिक ‘नेबरहुड फर्स्ट’ की नीति को प्रमाणित किया। प्रधानमंत्री द्वारा अपने कार्यकाल की शुरुआत में विदेश यात्रा के लिए पड़ोसी देशों का चुनाव ही इस बात की पुष्टि करता है कि भारत अपने पड़ोसी देशों को विदेश नीति में महत्वपूर्ण स्थान देता है। इसमें यदि द्वीपीय देश मालदीव की बात करें तो उसे भारत के घनिष्ठ पड़ोसी के रूप में देखा जाता है जिससे भारत के जातीय, भाषायी, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं वाणिज्यिक संपर्क की जड़े काफी पुरानी होने के साथमधुर और बहुआयामी हैं। सन 1965 में मालदीव की आजादी के बाद उसे मान्यता प्रदान करने और विदेश संबंध स्थापित करने वाले पहले देशों में भारत का नाम शामिल है।
वहीं यदि श्रीलंका (Sri Lanka) की बात करें तो, श्रीलंका को भारत के पड़ोसी और एक अहम मित्र राष्ट्र के तौर पर देखा जाता है। भारत और श्रीलंका के बीच धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषाई रिश्ते वर्षों पुराने हैं। हालाँकि कई बार ऐसा हुआ है कि कुछ राजनीतिक और कूटनीतिक कारणों से दोनों देशों के मध्य आपसी रिश्तों में दरारें भी आई हैं। जिसकी प्रमुख वजह तमिल समस्या, लिट्टे और द्वीपीय विवाद शामिल रहा है। इस प्रकार दोनों देशों के संबंधों में समानता और भिन्नता के तत्व मौजूद रहें हैं। इसके बावज़ूद दोनों देशों के मध्य सीधे टकराव की स्थिति कभी नहीं आयी। इसका कारण यह है कि दोनों देशों के बीच सैन्य क्षमता में एक बड़ा अंतर मौजूद है। हालाँकि, जातीय मुद्दों को लेकर कई बार दोनों देशों के मध्य लम्बे समय तक तनाव की स्थिति भी बनी, परंतु इन सभी उतार-चढ़ाव के बावज़ूद भी दोनों देशों ने अपने संबंधों की निरंतरता और प्रगतिशीलता बनाए रखी है। यही वजह है कि श्रीलंका अपने देश में भारत की सहायता से की जा रही विकास परियोजनाओं पर खास ज़ोर दे रहा है और दोनों देशों में कारोबार, निवेश, नौवहन और सुरक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिए बातचीत जारी है। इसके अलावा भारत ने श्रीलंका (Sri Lanka) के हम्बनटोटा के निकट मत्ताला हवाई अड्डे को विकसित करने के लिए अपनी दिलचस्पी दिखाई थी। साथ ही ‘जाफना’ में श्रीलंका भारत के सहयोग से अपने नागरिकों के पुनर्वास का कार्य पूरा कर रहा है।
दूसरी तरफ मालदीव (Maldives) की बात करें तो भारत और मालदीव (Maldives) के मध्य नियमित संपर्क के माध्यम से द्विपक्षीय संबंध मज़बूत हुए हैं तथा भारत के लगभग सभी प्रधानमंत्रियों ने मालदीव का दौरा किया है साथ ही मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति महमूद अब्दुल गयुम ने राष्ट्रपति के रूप में कई बार भारत का दौरा किया है। वहीं वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन भी शामिल हुए थे। वहीं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ, राष्ट्रमण्डल, गुट निरपेक्ष आंदोलन और सार्क में भारत और मालद्वीप ने एक-दूसरे का हमेशा समर्थन और सहयोग दिया है। इस प्रकार द्विपक्षीय सहायक के रूप में भारत और मालदीव एक दूसरे के अग्रणी साझेदार रहे हैं। प्रधानमंत्री की मालदीव और श्रीलंका की यात्रा से हिन्द महासागर के द्वीपीय देशों से भारत के क्षेत्रीय भू-भाग की सुरक्षा को मज़बूती मिलने के साथ ही, भारत को हिन्द महासागर में एक अवसर भी प्रदान करता हैं। जिसकी वास्तविक शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल से ही प्रारंभ हो चुकी थी।
ऐसे में सहज ही यह प्रश्न उठाता है कि इस यात्रा के क्या मायने हैं? दरअसल हिंद महासागर क्षेत्र में चीन रिंग ऑफ पल्स की नीति, चीन-पाक आर्थिक गलियारा और नेपाल तथा श्रीलंका (Sri Lanka) जैसे भारत के पड़ोसी देशों में चेकबुक पॉलिसी के ज़रिये अपनी ताकत बढ़ा रहा है। वहीं चीन अपनी सेना का तेज़ी से अधुनिकीरण भी कर रहा है। जिससे भारत की सामरिक, आर्थिक और रणनीतिक सुरक्षा के सामने एक कड़ी चुनौती मौजूद है। भारत का चीन और पाकिस्तान से टकराव के कारण भारत का क्षेत्रीय दायरा सिमट रहा है, किन्तु दक्षिण एशिया में भारत की भू-राजनीतिक सोच में कोई कमी नहीं आई है। साथ ही चीन और पाक के साथ म्यांमार, थाइलैण्ड, मालदीव (Maldives) और श्रीलंका जैसे देशों की स्थल और समुद्री सीमाएं भारत से लगती है इस लिहाज से ये देश, भारत की शांति, सुरक्षा और विकास के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं।
नेबरहुड फर्स्ट और लुक ईस्ट से एक्ट ईस्ट: इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भारत द्वारा नेबरहुड फर्स्ट और लुक ईस्ट से एक्ट ईस्ट की नीतिगत पहल की गई है। साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने इसे कार्य रूप में बदलने के लिए अपने दूसरे कार्यकाल के शपथ ग्रहण समारोह में बिम्सटेक देशों को आमंत्रित किया था। चूँकि मालदीव (Maldives) बिम्सटेक संगठन का सदस्य नहीं है यही वज़ह है कि वह शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुआ, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी यात्रा की शुरुआत मालदीव से की है। जहाँ तक श्रीलंका (Sri Lanka) का सवाल है तो वहाँ चीन कि आर्थिक और सामरिक गतिविधियां अधिक और पकड़ मज़बूत होती जा रही है जिसे देखते हुए मोदी जी कि श्रीलंका की यात्रा महत्वपूर्ण हो जाती है।
इसका एक कारण यह भी है कि दक्षिण एशिया कि संकल्पना ने हमेशा एशिया महाद्वीप में शक्ति संतुलन की विचारधारा को मज़बूत किया है। गौरतलब है कि भारत के लिए इस क्षेत्र में अपनी साख बनाये रखना ज़रूरी है जिसके लिए इन द्वीपीय देशों का सहयोग ज़रुरी है हालाँकि, चीन के तेज़ी से उभरने से अमेरिका उसे एक मज़बूत प्रतिद्वंदी के रूप में देखता है और उसे संतुलित करने के लिए भारत का सहयोग करने के लिए तैयार है, जिसे एशिया महाद्वीप में भारत के लिए एक अवसर के रूप में देखा जा रहा है हालाँकि, अमेरिका द्वारा एशिया में भारत का सहयोग मिलना अच्छा कदम बताया जा सकता है किन्तु भारत के समक्ष चुनौतियां कम नहीं हैं।
दरअसल, भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में चीन को देखा जा सकता है क्योंकि चीन अपने मानव संसाधन और तकनीकी विकास कि बदौलत तेज़ी से विकास कर रहा है, साथ ही बाज़ार तक अपनी पहुँच बनाने के लिए भारत को पीछे छोड़ने की हर जुगत कर रहा है। क्योंकि चीन इस बात को अच्छी तरह से समझता है कि यदि उसे विश्व महाशक्ति बनाना है तो भारत को पीछे छोड़ने के साथ वैश्विक बाज़ार में अपनी पहुँच स्थापित करना ज़रुरी है। यही कारण है कि चीन वन बेल्ट वन रोड परियोजना के ज़रिये बाज़ार तक पहुँचने के साथ भारत को सामरिक दृष्टि से घेरने कि पहल कर चुका है जिसकी पूर्ति के लिए वह भारत के पड़ोसी देशों में विकास के बहाने उन्हें क़र्ज़ के जाल में फ़सा कर अपना हित साधने में लगा है।
वहीं पाकिस्तान, भारत को हर हाल में पीछे देखना चाहता है जिसके लिए उसे चीन का सहयोग भी मिल रहा है। भारत के कई बार शांति स्थापित करने की पहल करने के बाद भी पाकिस्तान के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है यही कारण है कि सार्क आज निष्प्रभावी हो गया है। हालाँकि, भारत चीन के रिंग ऑफ पल्स कि नीति के जबाब में वर्ष 2015 में सेशेल्स, मॉरीशस और श्रीलंका की यात्रा की तथा एक हिन्द महासागर रणनीति की रूपरेखा भी तैयार की है जिसे ‘सागर’ अर्थात् ‘सिक्योरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल द रीज़न’ कहा गया है।
इस योजना के ज़रिये भारत यह स्पष्ट कर चुका है कि वह हिन्द महासागर रीज़न के देशों के साथ अपना सहयोग बढायेगा जैसे कि फ्रांस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान कर रहें हैं। इसके लिए भारत अपने पूर्व और पश्चिम के द्वीपीय क्षेत्र ‘अंडमान और लक्ष्यद्वीप’ का विकास कर, समुद्री पड़ोसीयों को संगठित कर सकता है और इन देशों के ज़रिये चीन के प्रभाव को कम कर सकता है क्योंकि भूटान के आलावा भारत के सभी पड़ोसी देश चीन की महत्वकांक्षी परियोजना ओबीओआर के सदस्य है। इसलिए इन देशों के साथ भारत का एक मज़बूत संबंध होना ज़रूरी है।
जहाँ तक पाकिस्तान का सवाल है तो भारत यह समझ चुका है कि वह जितनी भी पहल कर ले पाकिस्तान न तो सार्क और न ही विकास के मुद्दे पर, भारत के साथ आने वाला है लिहाजा भारत को अपने सुपरिचित मार्ग अर्थात् बिम्सटेक और पड़ोसी देशों पर फोकस करना होगा। साथ ही प्रधानमंत्री मोदी को अब मेडागास्कर, कोमोरोस, रीयूनियन और डिएगोगार्सिया को आकर्षित करने के लिए अपने रणनीतिक दायरे के विस्तार की पहल करनी होगी।
ग़ौरतलब है कि रीयूनियन फ्रांस तथा डिएगोगार्सिया हिन्द महासागर में स्थित एक अमेरिकी सैन्य बेस है जो भारत के लिए सामरिक और रणनीतिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है जिसके ज़रिये भारत हिन्द महासागर में अपने राजनीतिक एवं आर्थिक हितों की पूर्ति कर सकता है। हालाँकि, पड़ोसी देशों के साथ भारत कि यह नीति कोई नई अवधारणा नही है किन्तु बिम्सटेक को वरीयता देना अपेक्षाकृत नई पहल कही जा सकती है जो निसंदेह भारत को एशिया महाद्वीप में एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित करने में मदद करेगा। लिहाजा भारत को अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में निकटता के प्रयासों को केवल चीन को संतुलित करने के नज़रिये से ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उसके समग्र विकास की ज़रूरत की दृष्टि से भी देखना चाहिए क्योंकि हिन्द महासागर में मालद्वीप के रास्ते विश्व के समुद्री व्यापार का लगभग 80 फीसदी हिस्सा संचालित होता है।
निष्कर्षतः श्रीलंका भारत के सांस्कृतिक, सामरिक और आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए आवश्यक है और यदि भारत अपने ‘सागर योजना’ अर्थात् सिक्योरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल द रीज़न पर आगे बढ़ना चाहता है तो मालदीव (Maldives) और श्रीलंका (Sri Lanka) को विश्वास में लेना भारत की ज़रूरत भी है और मज़बूरी भी। अतः कहना उचित होगा कि प्रधानमंत्री की उपरोक्त यात्रा दूरदर्शी होने के साथ-साथ प्रगतिशील कदम भी साबित होगी।
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